किंतु मैं हारा नहीं
बह चला जब हिम से मैं पर्वतों को चीर कर,राह में फिर रूप कितने थे मुझे धरने पड़े।झरना, नदी, सिंधु […]
बह चला जब हिम से मैं पर्वतों को चीर कर,राह में फिर रूप कितने थे मुझे धरने पड़े।झरना, नदी, सिंधु […]
बूंद बन के बादलों से गिर कभी धरा पेकभी बन निशा की दीप टिमटिमाताकभी बन सूरज सा तेज जलानेवालाकभी शाम
मैने मान लिया है कि जीवन अकेले चलने का नाम है और मुझे इस बात की बेहद खुशी है।जब आपके
जो भी मिलता है,खो जाता है।आँखों को धोखा हो जाता है।ठेस लगने पे सजग होते हैं पाँव,एक आदमी और फिर
दिलों में हौसला नस-नस में और खून भरना है।जहाँ मुश्किल हो चलने में उसी राह से गुजरना है। मैं कुछ
जीवन का सार ही यहीं है।जीवन में सार ही नहीं है।जिसे जीतने का सौक नहीं,उसकी कोई हार ही नहीं है।
सूखे बेल के पत्ते कभी वृक्ष नहीं हरा करते।सरोवर अपने पानी से सागर नहीं भरा करते।व्यक्ति से व्यक्ति की गरिमा
कदाचित हो संभव तेरे बगैर मैं जी सकूतो होगी ज़िंदगी पर ज़िंदगी में मैं नहीं।तुम्हे क्या खबर कि कितने सागर
वर्षों ह्रदय में पीर रहे हैंअभी तो नैन से नीर बहे हैंसोता जग जब मैं जगता हूँखुद को बोझ सा
लिये इसके बहार नहीं हैकाँटों को भी प्यार नहीं हैजब देखो आ जाता सिंधु,खाली-खाली इन नैनन में।कैसा फूल खिला उपवन