न जाने कितने मौज हिलोरे ले रहे थे मुझ में
जब बैठा मौन हो शांत कुछ दिन
फिर ठहरा खुद के अंदर।
हाँ मैं ठहर गया खुद में।
ऐसे ठहरा जैसे तेज आँधियों के बाद ठहरता है मरुस्थल।
ऐसे ठहरा जैसे सुबह का साफ आसमान।
हाँ मैं ठहर गया,ऐसे जैसे शरद ऋतु में ओस की बूंदे जमी हो घास पर।
जब ठहरा तब पता चला,दौड़ने वाले कहीं नहीं पहुँचते।
सब ठहर जाते हैं,सबको ठहरना है एक दिन।
न जाने क्यूँ भाग रही है दुनिया
न जाने क्यूँ दौड़ रहें हैं लोग!जबकि ठहराव जीवन का परम् लक्ष्य।
©️संदीप कुमार तिवारी