आँधियाँ जो टल गईं ये ना समझो टल गईं!
आँख में सौ सुइ थीं आज एक निकल गई।
पीर की गहरी नदी उमड़ी थी जो ज़ोर से,
वो नदी कुछ पल की खातिर शाम बन के ढल गई।
तुम मगर अड़े ही रहना वक्त के मंझ धार में,
सांस की रफ्तार में, प्यार में दुत्कार में।
फिर नई कोई रंग अपनी ज़िंदगी दिखलाएगी,
क्या पता किसको ख़बर कौन मोड़ लेआएगी।
मुझ से कुछ सिसकी मेरी कह के ये सब कल गई।
आँधियाँ जो टल गईं ये ना समझो टल गईं!
बादलों की भीड़ में छुप गया तो क्या हुआ
ये हटेंगे सब बटेंगे आसमानी गोद में
तू अंधेरों को मिटाने तो चला है चाँद सा
तेरे ग़म के पौ फटेंगे ज्ञान के इस बोध में
वीर है तो वीर रह,अपने में भी धीर रह!
पर दिखा ना हम कभी भेष में फ़कीर रह।
हमने देखा एक मंज़र अपनेपन का ऐसा भी,
एक मछली दूसरी को झट से हीं निगल गई।
आँधियाँ जो टल गईं ये ना समझो टल गईं!
क्या विधि की योजना है तू समझ ना पाएगा।
वक्त का हर एक मंज़र वक्त ही समझाएगा।
कल जो था वो आज क्या आज जो है कल नहीं।
घड़ी-घड़ी बदलाव है ठहरा कोई पल नहीं।
हाथ में सब है तेरे यह हाथ पर उसका ही है।
साथ होंगे लोग लाखों साथ पर उसका ही है।
काल की पहचान होती है पुराने दुर्ग से,
बात ये हमने भी जाना है किसी बुजुर्ग से,
जिसकी एक तजुर्बे में उम्र सारी ढल गई।
आँधियाँ जो टल गई ये ना समझो टल गईं!
©️ संदीप कुमार तिवारी’श्रेयस’