बेटियाँ जो होती हैं फूल सी कोमल
अपने घर की गुड़िया,पति के घर की रौनक।
बेटियाँ होती हैं उस ब्रम्हा के बाद दूसरी सृजनकर्ता,बेटियाँ होती हैं धरती सी बोझ सीने में छुपाए हुए मुस्कुराता हुआ एक चाँद भी।
इनका अपना कोई मांग नहीं अपनी कोई मर्ज़ी नहीं।
घर पे माँ-बाप की माननी है तो ससुराल में ससुराल वालों की।
बेटियाँ होती हैं एक ही जिस्म को दो जगह गिरवी रख के जीनेवाली कठपुतली,दोनों जगह इन्हे अलग अलग तरीके से इस्तेमाल किया जाता है।
आज के आधुनिक समाज तो जैसे मर चुका है बेटियों के लिए।
चलिए देखते हैं बेटियों का जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक।
बेटियाँ जब जन्म लेती हैं तो माता पिता वैसे तो कहते हैं घर में लक्ष्मी ने जन्म लिया पर इनके जन्म पे थालियाँ नहीं बजती,जी हाँ ऐसा ही होता है!ज्यादा नहीं महज़ पचास सालों में बेटियों के प्रति दुनिया कैसे बदली है आइए जानते हैं। बेटियों के साथ सौतेला व्यवहार इनके घर से ही शुरु हो जाता है।माँ को पाउडर,लीपिस्टीक से फुरसत नहीं और पिता को पुत्र प्यारा है,आँखों का तारा,कलेजे का टुकड़ा और पता नहीं क्या-क्या उप नाम दिये जाते हैं बेटों को और बेटी के लिये ज्यादा से ज्यादा लक्ष्मी या पापा की परी।
ऐसा लगता है ये नाम इनके लिए उधार का भीख हो।
हाँ परी शब्द से याद आया! घर में भी इन्हें परी बन के रहना है और ससुराल में भी।
छोटा भाई भी इन्हे रे कह के पुकार सकता है या फिर नाम से, अगर थप्पड़ भी मार दे तो चलेगा क्यूँकि वो घर का लाडला है न!
इनका जीवन बहुत नाप तौल का है।
जब ये स्कूल से घर आती हैं तो माँ के साथ घर के काम में हाथ बटाना है नहीं तो ससुराल में क्या करेंगी जा कर। बस इतना सीखने के नाम पर बचपन से लेकर जवानी तक अपने ही घर में गुलामी करनी पड़ती है,और माँ को टीवी का एक भी सीरियल नहीं बहकना चाहिए।
आज मैंने कुछ देखा।एक पिता को, जब लड़का स्कूल से घर आया तो उसे झप्पी देते हुए, हर रोज देखता हूँ ऐसा ही होता है लेकिन जब लड़की आती है तो उसे पूछा भी नहीं जाता कि आज का दिन कैसा गया और एक बात जब छोटा भाई स्कूल से आता है तो उसका बैग लेने उसे भी आना होता है,मैं उस लड़की के चेहरे की मायूसी देख सकता हूँ पर उस पिता को नहीं दिखता,फिर वो लड़की घर के अंदर जाती उसे थोड़ी माँ से उम्मीद होती है पर आजकल की माएँ भी अपनी रंगोरस में ही डूबी रहती है,इस प्रेम की प्यास को वो लड़की अंदर ही अंदर दबाए हुए सारा विष पी जाती है और धीरे-धीरे बड़ी हो जाती है।
अब यौवन आता है,फिर किसी दूसरे की बारी आती है,वो लड़का जिसे ये कभी जानती भी नहीं थी,हाय जानू हाय, जान कर के जान लेने की कोशिश करता है और इन्हे ये सब अच्छा भी लगता है; क्यूँकि घर में तो प्यार मिला नहीं, लड़की उस लड़के में प्रेम की उम्मीद की इक नइ किरण देखती है। कई बार ऐसा होता भी है इन्हे सच में चाहने वाला मिल भी जाए तो माँ-बाप राज़ी नहीं होते; लेकिन ज्यादा तर ऐसा नहीं होता,भँवरा फूल से पराग़ लेने तक ही जानू सोना कहता है जैसे ही पराग़ मिलता है फुर कर के उड़ जाता है।
अब चलते हैं शादी तक और उसके बाद का जीवन जानने।
जब से शादी का दिन तय होता है तब से माँ बाप का ताना शादी होने तक सुनना पड़ता है, ये खरीदना है वो खरीदना,इतना दहेज लग गया,इस लड़की ने तो बर्बाद कर दिया,भाई अलग ताना देता है कि अगर इसके शादी में इतना खर्च नहीं होता तो हम कोई बड़ा सा बिजनेस कर लेते, ‘या कर लेते वा कर लेते’।
शादी खत्म हुई अब बारी आई ससुराल वालों की,ससुराल में पति अपने तरीके से हेंडल करना चाहता है,सास का अलग डिमांड रहता है,देवर हवस का मशीन समझता है।
ससुर घर की नौकरानी।
भाइ सबका मन रखना है इसलिए अलग-अलग किरदार में जीना पड़ता है।
मैंने देखा पचास के उम्र होने के बाद भी उसके बच्चे जिम्मेदार हो जाते हैं पर उस औरत कें भीतर की वो बच्ची ज़िंदा रहती है जिसे कभीं प्रेम नहीं मिला।
उस औरत को फिर किसी ग़ैर मर्द से प्रेम होता है,एकबार फिर छली जाती है,बदनाम होती है और इस बदनामी के साथ धीरे-धीरे जीवन बीत जाता है। न जाने यह पुरुष प्रधान समाज कब इन बेटियों को समझे। यह लेख किसी को व्यक़्तिगत आहत करने के लिए नहीं है, इसलिए अन्यथा ना ले।लेखक का काम है समाज को दर्पण दिखाना।
©️संदीप कुमार तिवारी