दोस्तों उम्मीद है अब आप लोग ग़ज़ल को कुछ-कुछ समझ गए होंगे।
आगे बढ़ने से पहले मैं आप सभी को बता दू कि जिन्होंने ग़ज़ल लिखना सीखे भाग-4 से पहले के ग़ज़ल कैसे लिखे भाग-3 एपिसोड नहीं पढ़ा हो तो कृप्या एक बार जरूर पढ़ ले नहीं तो कुछ समझ में नहीं आएगा।तो दोस्तों पिछले भाग में हमने इक अच्छी ग़ज़ल के गुण क्या है इसे पढ़ा था,मैं आप सभी को इक बात और बता दू कि ग़ज़ल लिखने में एक बात और ध्यान देने योग्य है कि जब आप ग़ज़ल लिख रहे हैं तो उसका हर शे’र उत्सुकता बढ़ानेवाला होना चाहिए,मतलब पहला शे’र पढते ही पाठक अगले शे’र को पढ़ने के लिए उत्सुक हो जाए।
अब बढ़ते है रदीफ़ की तरफ।
रदीफ़
अब जब ग़ज़ल में बात रदीफ़ की आती है तो मैं आप सभी को बता दू कि रदीफ़ एक अरबी शब्द हैं जिसका शाब्दीक अर्थ होता है ‘पीछे चलने वाला’ ये रदीफ़ रद् धातु से बना शब्द है।
ग़ज़ल में रदीफ़ एक ऐसा शब्द है जो ग़ज़ल के हर शे’र में दूहराई जाती है।ये अंत में हू-ब-हू वैसे ही रहता है इसमें कोई बदलाव नहीं होता। नीचे आपको उदाहरण के रूप इक ग़ज़ल के कुछ शे’र दिए जा रहे हैं उससे समझे
सजाए बैठे हैं हम रात की महफ़िल।
कि है तू ही नहीं किस बात की महफ़िल।
सभी किस्से सभी सौग़ात की महफ़िल।
तू लेता जा तिरी हर बात की महफ़िल।
मैं सबसे आख़िरी पंक्ति में पीछे था,
वफ़ा की थी जहाँ ख़ैरात की महफ़िल।
गवारा ही नहीं है क्या ही बोलू मैं,
मुझे ये धत् तेरी की जात की महफ़िल।
किसी हालात से मिलती नहीं ‘बेघर’,
यहाँ तेरी किसी हालात की महफ़िल।
©️संदीप कुमार तिवारी’बेघर’
उपर्युक्त अश’आर में आप देख पा रहे हैं कि शे’र के हर मिसरे में आख़िरी में ‘की महफ़िल’ शब्द का दुहराव हो रहा है अत: यह रदीफ़ है।
रदीफ़ को भी अलग-अलग भागों में बांटा गया है,इसके तीन भाग हैं।
लंबी रदीफ़,मझली रदीफ़,छोटी रदीफ़।
हम आपको बता दे कि जिस ग़ज़ल में एक दो शब्द छोड़ कर बाकी सब रदीफ़ ही शे’र को पूरा करते हैं उसे हम लंबी रदीफ़ कहेगें और जिसमें दो से अधिक शब्द रदीफ़ हो वो मंझली रदीफ़ कहलाएगी और जिस ग़ज़ल में एक ही शब्द रदीफ़ हो वो छोटी रदीफ़ कहलाएगी।
आसा है आप सभी रदीफ़ को समझ गए होंगे।
कुल मिला के बात ये है कि रदीफ़ को हम ग़ज़ल की बाबत(व्याकरण)से अलग नहीं रख सकते,रदीफ़ ग़ज़ल के मूल तत्वों में से एक है जिससे ग़ज़ल की सुंदरता कई गुना बढ़ जाती है।
अब हम ग़ज़ल में क़ाफ़िया को समझते हैं।क़ाफ़िया क्या है? दोस्तों काफ़िया का शाब्दिक अर्थ होता है जाने के लिए तैयार।
क़ाफ़िया वह शब्द है जो ग़ज़ल में रदीफ़ के ठीक पहले आता है और शे’र की तुकबंदी को पूरा करता है।
जैसे उदाहरण के लिए-
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए
~(दूष्यंत कुमार)
उपर्युक्त अश’आर में चाहिए शब्द रदीफ़ है और उससे पहले जो शब्द पिघलनी,निकलनी,जलनी ये सभी शब्द हर्फ़-ए-क़ाफ़िया(क़ाफ़िया का बहुवचन)हैं।ध्यान रहे! क़ाफ़िया बस तुकबंदी को ही पूरा करते हैं लेकिन हर शे’र में एक ही शब्द का दुहराव करने से बचे नहीं तो ग़ज़ल दोषपूर्ण मानी जाएगी।
हम आपको बता दे कि क़ाफ़िया ग़ज़ल का केन्द्रबिंदू होता है।
क़ाफ़िया का दो प्रकार है पहला स्वर क़ाफ़िया दूसरा व्यंजन क़ाफ़िया।
जिसमें केवल स्वर की तुकांतता रहती है उसे हम स्वर क़ाफ़िया कहेंगे
और जिसमें सिर्फ व्यंजन वर्णों की तुकांतता रहे उसे हम व्यंजन क़ाफ़िया कहते हैं ।
उदाहरण के लिए प्रस्तुत है कुछ अश’आर पहले स्वर क़फ़िया पे।
जैसे कुछ शे’र आ मात्रा के अधार पे देखें।
सुनो यारो कि क्या मुझको नहीं लगती।
किसी की भी वफ़ा मुझको नहीं लगती।
मुझे बीमार तू कर तो गया लेकिन,
पता भी है! दवा मुझको नहीं लगती।
किसी ने उम्र बढ़ने की दुआ दी है,
सितम ये है दुआ मुझको नहीं लगती।
हया मैं इश्क़ में करता तो हूँ ‘बेघर’,
हया है पर हया मुझको नहीं लगती।
©️संदीप कुमार तिवारी’बेघर’
उपर्युक्त अश’आर में मुझको नहीं लगती का बार-बार दुहराव हो रहा है जो की एक रदीफ़ है,ठीक उससे पहले,क्या,वफ़ा,हवा,दुआ जैसे शब्द आ रहे हैं जो की हर्फ-ए-क़ाफ़िया हैं जो की एक स्वर क़ाफ़िया हैं और आ मात्रा को आधार मानकर लिखे गए हैं।
ए-मात्रा पे कुछ अश’आर देखे:-
जब कोई भी सताने लगे।
वो हमे याद आने लगे।
आपको दिल दिया रहने को,
आप तो घर बनाने लगे।
©️संदीप कुमार तिवारी’बेघर’
उपर्युक्त अश’आर में सताने,आने,बनाने,सुहाने ये सब हर्फ-ए-क़ाफिया हैं जो ए मात्रा को आधार मान कर लिखे गये हैं आगे इसी लय पे कुछ शे’र और देखे।
कौन है जो दुआ दे मुझे,
वक्त पे नींद आने लगे।
ज़िंदगी है तमाशा बनी,
आप भी आज़माने लगे।
मुफ़लिसी चीज़ ही ऐसी है,
कोई भी दूर जाने लगे।
©️संदीप कुमार तिवारी
ऐसे ही स्वर वर्ण पे और सारी ग़ज़लें लिखी जाती हैं जो कि ई,ऊ,ए,ऐ,ओ इत्यादि स्वर वर्ण पे होंगी।
अब आते हैं व्यंजन वर्ण के क़ाफ़िया वाले ग़ज़ल पे,तो दोस्तों सीधी सी बात है कि ये व्यंजन वर्ण की होगी।
अब व्यंजन वर्ण के क़ाफ़िया पे आधारित प्रस्तुत हैं कुछ शे’र
प्यार के ख़ुमार की पुकार भी चली गई।
चैन दिल के लूट के तू यार भी चली गई।
तू चली गई कहीं बदल गई है ये फ़ज़ा,
यार अब बसंत से बहार भी चली गई।
~(संदीप तिवारी)
उपर्युक्त शे’र में ‘चली गई’ रदीफ़ है और पुकार,यार,बहार – हर्फ-ए-क़ाफ़िया है,इसमें आर का समतुकांत क़ाफ़िया बन रहा है जिसके आख़िरी में र है।इसमें आर की सम तुकांतता बनी रहेगी,आगे इसी क़ाफ़िया पे अधारित कुछ शे’र और देखे
हम अभी तो ठीक से न रो सके भी टूट कर,
ये नदी बही नहीं कि धार भी चली गई।
मैं लड़ा कि तुम लड़ी थी इश्क की निबाह में,
जीत तो न हो सका कि हार भी चली गई।
झुक नहीं रहा हूँ मैं भी किसी के सामने,
अब किसी से प्रेम की गुहार भी चली गई।
©️संदीप
ऐसे ही व्यंजन वर्ण की क़ाफ़िया पे बहुत सी ग़ज़लें कही गईं हैं।
तो दोस्तों उम्मीद है आप लोग कुछ तो जरूर समझे होंगे।
मैं आप सभी को बता दू कि ग़ज़ल में क़ाफ़िया बहुत महत्व रखता है,और इसमें बहुत सावधानी बर्ती जानी चाहिए,आज इतना ही आगे हम इसे और विस्तार से समझेंगे तब तक के लिए विदा चाहूँगा,और एक बात आपको बता दूँ कि हमारा अगला एपिसोड भाग-5 ग़ज़ल में मात्रा गणना से शुरु होगा।धन्यवाद