बढ़ते चलो

अश्रुजल में डूब जाना स्वभाव है शरीर का
मन से पर भयभीत ना हो भाव है फकीर का
इस जगत में कौन है तेरा कि तुझको मिले,
आईने के सामने खुद को खड़ा हो देख ले।
कर तू कोई फैसला, अडिग रह तत्पर भी रह,
विश है जीवन,शाप है, पी जा इसे हर दर्द सह।
स्वक्ष और प्रत्यक्ष लक्ष्य भेद एक गढ़ के चलो,
आँधियां आएंगी पथ में तुम मगर बढ़ते चलो।

कुछ रुष्ट वेदनायें भी मिलती ही है दुःख के लिये
पर ये भी सच है खुश रहोगे तुम मगर किसके लिये
हर बाग़ का भी फूल खिल के यहाँ मुरझाएगा,
जो भी मिलेगा सोच लो एक दिन यहाँ छीन जाएगा।
तू पेड़ बन स्वभाव से,कटते भी जा,फलते भी जा,
चलना ही तेरा काम है,चलते ही जा,चलते ही जा।
हाँ इस धरा पे पर्वत तो अनेक हैं, चढ़ते चलो!
आँधियां आएंगी पथ में तुम मगर बढ़ते चलो।

सबकुछ भरम है ज़िंदगी फिर भी खुशी से जी ले तू
कोई नहीं तो खुद की चादर खुद यहाँ पे सी ले तू
हो मौन तू चुपचाप देख इस जगत की रीत को,
अंदर है कुछ बाहर है कुछ इस सच्ची झूठी प्रीत को।
हर शख़्स से मिल ले यहाँ हर शख़्स को तू जान ले,
सब धूल से भरी हुई चेहरा यहाँ पहचान ले।
ना समझ आए तो भी हर खबर पढ़ते चलो,
आँधियां आएंगी पथ में तुम मगर बढ़ते चलो।

जंग ही स्वभाव है,जीने का भी मरने का भी
बहते रहना वेग है,नदी का भी, झरने का भी
जागती आँखों से जो कुछ दिख रहा सब सपना है,
बदलते रहना यहाँ सृष्टि की हर रचना है।
प्राकृति की हर शै को देख,चलता समय रुकता नहीं,
सावन में अंबर रोता तो है पर कभी झुकता नहीं।
बाधा सम्मुख पहाड़ बन अड़ते चलो लड़ते चलो,
आँधियां आएंगी पथ में तुम मगर बढ़ते चलो।

@संदीप कुमार तिवारी ‘बेघर’

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