आओ सुनाऊँ तुमको बाबु
एक है चोर एक है साधु
चोर यहाँ सिंघासन पाता
साधु को वन मिल जाता
जिसने यह न्याय किया है
ठीक-ठीक उपाय किया है
झगड़ा यहाँ पे ख़त्म न हो
सुखी रहने का यत्न ना हो
जो यहाँ चाहे बस सकता है
गैर शिकंजा कस सकता है
जात-पात का भेद नहीं है
पर आरक्षण जात में ही है!
किसी ने छोड़ा किसी ने पकड़ा
देश को सबने ऐसे जकड़ा
कि आज भी माँ स्वतंत्र नहीं है
भारत का गणतंत्र यही है।
आज भी भूखा,भूखा रहता
आज भी नंगा, नंगा रहता
आज भी बेटी नहीं सुरक्षित
आज भी है कुल्टा दिक्षित
आज भी दफ़्तर घूस लेता
जीते जी खून चूस लेता
आज भी प्रेम का मोल नहीं
आज भी इमां अनमोल नहीं
अब भी हैं भीख मांगनेवाले
घर की इज़्ज़त टांगनेवाले
आज भी जातिवाद बढ़ा है
नेता को बस वोट बड़ा है
आज भी धर्म पे झगड़ा है
यहाँ हर बेईमान तगड़ा है
आज भी एकतामंत्र नहीं है
भारत का गणतंत्र यही है।
धरा ठिठुरती है सर्दी में
देश है लिपटा खुदगर्ज़ी में
अब तो सीने पे स्टार लगाए –
सब चोर घूमते हैं वर्दी में।
मौसम का परिवेश नहीं है
नया कोई भी भेस नहीं है
वहीं विवशता वहीं लाचारी
अब भी चीखती है बीमारी
सिर्फ़ बदलते हैं तो सत्तेवाले
यही खून चूसते भत्तेवाले
किसने यह दिन आख़िर चुना
जिस मौसम सब सूना-सूना
भारत माँ अभी अपनो में अधूरी हैं
सच पूछो तो अभी बदलाव ज़रूरी है
सब बदल दे क्या कोई मंत्र नहीं है?
भारत का गणतंत्र यही है।
©संदीप कुमार तिवारी ‘बेघर’