सूखे बेल के पत्ते कभी वृक्ष नहीं हरा करते।
सरोवर अपने पानी से सागर नहीं भरा करते।
व्यक्ति से व्यक्ति की गरिमा जब छीन जाती है,
तब फिर रिश्तों की डोरी गला-फांस बन जाती है।
सच्चे चेहरे को लेकर हम दर्पण को झूठलाए क्यूँ?
टूट चुका जब सारा बंधन मन फिर भी अकुलाए क्यूँ?
मेरे काँटों में मैं अर्पण मेरा कोई चमन नहीं।
मेरे सपनों के सागर में आशाओं की सुमन नहीं।
तेरा मेरा मिलना इस जग में वही प्रीत पुरानी थी,
मिल के फिर बिछड़ जाने की वही रीत पुरानी थी।
अपना बन के मेरा कोई अब दया मुझे दिखलाए क्यूँ?
टूट चुका जब सारा बंधन मन फिर भी अकुलाए क्यूँ?
दुनिया है मेला इसको देखा और ठीक से जाना।
इस मेले में खोकर ही हमने अपनों को पहचाना।
चलते रहे बचपन से अबतक हारे कभी जीत पड़े,
है पथ यह जाना-पहचाना जिस पे हम सौ बार गिरे।
ठोकर खाए हुए पथिकों को जग चलना सिखलाए क्यूँ?
टूट चुका जब सारा बंधन मन फिर भी अकुलाए क्यूँ।
©️संदीप🪔