‘मुनाफा’

“अंकल यह रही आपकी दवाईयां! और यह रहा बिल. पूरे ग्यारह सौ रुपए हो गए!” यह कहते हुए उस मेडिकल स्टोर के कर्मचारी रामानुज ने दवाईयों से भरी थैली और केलकुलेटर पर अच्छे से हिसाब किए गए बिल की पर्ची उस बुजुर्ग के सामने काउंटर पर रख दी।बुजुर्ग ने पर्ची पर नजर डाले बिना ही अपने कुर्ते की जेब टटोली। अपनी जेब में से कुछ सौ-पचास रुपयों के नोट हाथ में ले गिने बिना ही रामानुज की ओर बढ़ा दिया।

“अंकल यह तो मात्र नौ सौ रुपए ही हैं!इन दवाईयों का‌ बिल पूरे ग्यारह सौ रुपए का है।”बुजुर्ग द्वारा दवाई के बदले दिए गए रुपयों को गिनने के बाद रामानुज ने उन्हें यह बात बताना जरूरी समझा..”बेटा फिलहाल मेरे पास इतने ही रुपए बचे हैं!.लेकिन यह दवाइयां खरीदना मेरे लिए बहुत जरूरी है, आप मेरी थोड़ी मदद कर दो बेटा!”…उस बुजुर्ग ग्राहक की बात सुनकर रामानुज तनिक हैरान हुआ..”अंकल इसमें भला मैं क्या कर सकता हूंँ! आपके पास जितने रुपए हैं आप उतने की ही दवाई ले जाइए!””नहीं बेटा!.यह दवाइयां तो मुझे पूरी चाहिए, मेरी पत्नी की जिंदगी का सवाल है! उसे ब्रेन हेमरेज हुआ है वह कोमा में है और मैं उसके इलाज में कोई कोताही नहीं कर सकता।””लेकिन अंकल आपके पास रुपए तो है ही नहीं!” “बेटा जल्दबाजी में मुझे उसे अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा! इसलिए जितने रुपए मेरे हाथ में थे उतने लेकर मैं भागा चला आया, यह दवाइयां अस्पताल में डॉक्टर साहब को देने के बाद मैं अपने पत्नी की इलाज के लिए और रुपयों का इंतजाम कर लूंगा, मैं अपना घर-जमीन सब बेच दूंगा लेकिन उसका इलाज जरूर करवाऊंगा, उसके सिवाय इस दुनिया में मेरा कोई नहीं है!”

इतना कहते-कहते वह बुजुर्ग अचानक रो पड़ा। उस बुजुर्ग का दुख देख रामानुज ने ना चाहते हुए भी पूछ लिया… “अंकल आपकी अपनी कोई संतान नहीं है?” “एक बेटा है! लेकिन नहीं के बराबर!””मैं कुछ समझा नहीं?””बेटा! जो अपनी मांँ की बीमारी की खबर सुनकर भी उससे मिलने ना आ सका वह बेटा भला किस काम का!” 

“कहां रहता है आपका बेटा?”

“वह एक बड़े शहर में रहता है!.जहां उसके छोटे से टू बीएचके फ्लैट के घर में उसके बुजुर्ग मांँ-बाप के रहने के लिए कोई जगह नहीं है! और शायद ना ही उसके दिल में!”लेकिन आपके बेटे ने अपनी मांँ की बीमारी की खबर सुनकर कुछ तो कहा ही होगा ना!” “बेटा उसने कहा है कि, वह फिलहाल आ तो नहीं सकेगा लेकिन समय-समय पर फोन कर अपनी मांँ का हाल-चाल लेता रहेगा। “लेकिन अंकल कुछ रुपए तो वह भेज ही सकता है! आपकी अपनी मांँ के इलाज के लिए!”बेटा आज तक हमने उससे कभी किसी जरूरत के लिए रुपए नहीं मांगे! ना ही उसने कभी दिया! अब अपनी पत्नी के इलाज के लिए बेटे के आगे हाथ फैलाने को मेरा जमीर गवाही नहीं देता।”कोई बात नहीं है अंकल! मैं इन दवाइयों की कीमत चुकाने के लिए आपको अपनी तरफ से दो सौ रुपए की मदद कर देता हूंँ!”

यह कहते हुए रामानुज ने अपनी जेब में हाथ डाल अपना बटुआ निकालकर सौ-सौ के दो नोट बुजुर्ग द्वारा दिए गए रुपयों के साथ मिलाकर उन दवाइयों के साथ वहीं काउंटर पर पड़ी बिल की पर्ची उठा लिया। मेडिकल स्टोर में ग्राहकों से लेन-देन के लिए लगे कंप्यूटर स्क्रीन पर नजरें गड़ाए अपने मालिक राधेश्याम जी के पास पहुंचा। रामानुज अभी कुछ कहता उससे पहले ही उस मेडिकल स्टोर के मालिक राधेश्याम जी ने दवाइयों की खरीद मूल्य वाली पर्ची से मिलान कर हर एक दवाई के मूल्य में बहुत हद तक अपनी ओर से कटौती कर ग्यारह सौ की दवाइयों की कीमत मात्र छ: सौ रुपए कर दी थी। हाथ में आए ग्यारह सौ रुपयों में से पाँच सौ रूपए लौटाते हुए राधेश्याम जी रामानुज की ओर देखकर मुस्कुराए..

“तुम अपने रुपए रख कर बाकी के रुपए उन्हें लौटा देना!” दो सौ रुपए वापस अपनी जेब में रख बाकी के रुपए उस बुजुर्ग को वापस करते हुए रामानुज अपने मालिक की दरियादिली देख नि:शब्द था। लेकिन जरूरी दवाईयां खरीदने के लिए पर्याप्त रुपए ना होने के बावजूद दवाइयों के साथ-साथ कुछ रुपए हाथ में वापस पाकर वह बुजुर्ग हैरान हुआ.. “बेटा आप दवाई के रुपए वापस क्यों कर रहे हैं! आपका नुकसान होगा!”अंकल दवाई की कीमत मैंने ले लिया हैं! बस मैंने इन दवाइयों की कीमत में मिलने वाला अपना मुनाफा छोड़ दिया है!”… काफी देर से कंप्यूटर के स्क्रीन पर नजरें गड़ाए चुपचाप बुजुर्ग ग्राहक की पूरी कहानी सुन चुके राधेश्याम जी ने संतुष्ट भाव से नफा-नुकसान से ऊपर उठकर यह सोचते हुए उस बुजुर्ग ग्राहक के सामने अपने हाथ जोड़ लिए कि, आखिर ईश्वर के दरबार में एक ना एक दिन हम सभी को हाजिरी लगानी है!

                                                                 -पुष्पा कुमारी “पुष्प” पुणे (महाराष्ट्र)

 

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