ग़ज़ल लिखना सीखे

ग़ज़ल लिखना सीखे भाग-17

पिछले भाग से ही हम ग़ज़ल के दोष पे चर्चा कर रहे हैं। तो जिन्होंने इससे पहले का भाग ग़ज़ल लिखना सीखे भाग-16 नहीं पढ़ा है उनसे अनुरोध है कृप्या एकबार उसे जरूर पढ़े।
तो चलिए आगे बढ़ते हैं। आज हम ग़ज़ल में रदीफ़ का दोष देखेंगे।

रदीफ़ का दोष:- हालांकि रदीफ़ के बारे में हम पहले ही पढ़ चुके हैं लेकिन फिर भी इसके कुछ अंश को पुन: समझ लेने में कोई बुराई नहीं होगी। जैसा कि आप सभी को पहले ही बताया जा चुका है कि ग़ज़ल में हम रदीफ़ नहीं बदल सकते यानी इसके लिए कोई छूट नहीं मिला।
क्यूँकि एक बार जब मत्ला में रदीफ़ तय हो जाए तो उसे हटाना ग़ज़ल में तुकांतता को खत्म करना हैं और किसी भी शे’र में तुकांतता की बेहद जरूरत होती है।
उदाहरण के तौर पे पेश है एक ग़ज़ल👇

ग़ज़ल

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सुनो यारो बताता हूँ कि क्या बनना।
मोहब्बत में कभी तुम बेवफ़ा बनना।

उन्हें भी दिल दुखाने का मज़ा आए,
कि जिनका शौक ही हो बे-वफ़ा बनना।

त’आरुफ़ इश्क़ से हमको हुआ लेकिन,
सताता है मुझे ये हादसा बनना।

यहाँ जो ठीक से इंसा नही बनता,
उसी ने चुन लिया है देवता बनना।

ग़मों को पाल कर रखता नहीं हूँ मैं,
नहीं मंजूर अब इनका दवा बनना।

कि हमको याद है उनका मोहब्बत भी,
वो कुछ दिन साथ चलना फिर हवा बनना।

सुनो ‘श्रेयस’ कभी ऐसा भी होता है,
किसी को ले डुबोता है खुदा बनना।

   ~संदीप कुमार तिवारी 'श्रेयस'

जैसा कि आप देख सकते हैं कि ऊपर्युक्त ग़ज़ल के सभी मत्ले में ‘बनना’ शब्द का प्रयोग रदीफ़ के रूप में हुआ है जिसमें बदलाव करने पर यह रदीफ़ का दोष कहलाएगा और इससे ग़ज़ल का लय भी बिगड़ जाएगा।

कुछ अपवाद ऐसा भी देखने को मिला है जिसमें रदीफ़ के साथ छेड़-छाड़ किया गया है और वो विद्धानों के द्वारा सही भी साबित ठहराया गया है जैसे ‘तहलीली रदीफ़’ तहलीली रदीफ़ वाले ग़ज़लों के शे’र में ऐसे शब्द का प्रयोग करना जिससे क़ाफ़िया और रदीफ़ योजित हो जाएँ और दोनों का पालन हो जाए, ऐसी रदीफ़ को तहलीली रदीफ़ कहते हैं।
एक उदाहरण देखिए👇-

सब से मिलता है जो रो कर।
रह न जाए खुद का हो कर।
ले मज़ा आवारगी का,
मंज़िलों को मार ठोकर।

इसमें देखिए मत्ला के अनुसार रो, हो क़ाफ़िया हैं और कर रदीफ़ हैं मगर दूसरे शे’र में ठोकर शब्द में क़ाफ़िया और रदीफ़ संयोजित हो कर प्रयोग हुए हैं अर्थात् रदीफ़ क़ाफ़िया के साथ चस्पा हो गई है, इसे तह्वीली रदीफ़ कहते हैं।

नोट:- अरूज़ की कई किताबों में तहलीली रदीफ़ को दोष माना गया है मगर इस विषय में कुछ मतभेद हैं क्योंकि तहलीली रदीफ़ को कुछ अरूजियों ने दोष न मान कर गुण माना है। चूँकि इस प्रयोग में काव्य क्षमता का प्रदर्शन होता है इसलिये इसे दोष मानना उचित भी नहीं है।

ग़ज़ल में होनेवाले रदीफ़ के बहुत से दोष देखे गए हैं जिन्हें अलग-अलग भागों में बांटा गया है जैसे:- रब्त का न होना:- इसमें जब क्या होता है कि रदीफ़ तो होता है लेकिन शे’र में उस रदीफ़ का कोई अर्थ नहीं होता। जब शे’र में रदीफ़ का कोई अर्थ हीं न हो और ऐसा लगे कि उसे बेमतलब बस तुकांत के लिए डाला गया है तो शे’र में ओछापन आ जाता है और ग़ज़ल में दोष हो जाता है।

तक़ाबुले रदीफ़:- यह भी होता है कि कभी-कभी किसी ग़ज़ल में मत्ला और हुस्ने मत्ला के अतिरिक्त किसी शे’र में रदीफ़ का तुकांत अंश आ जाता है लेकिन जिसके मिस्रा-ए-ऊला में रदीफ़ नहीं होता तो इसे भी रदीफ़ का दोष माना जाएगा जिसे तक़ाबुले रदीफ़ कहते हैं, इसके भी दो भेद हैं। पहला- लाज़्तमा-ए-जुज्ब-ए-रदीफ़ैन, दूसरा- लज़्तमा-ए-तक़ाबुल-ए-रदीफ़ैन। आइए इसे समझते हैं।
मतला के अतिरिक्त यदि रदीफ़ का तुकांत स्वर मिस्रा-ए-ऊला के अंत में आ जाए तो उसे लाज़्तमा-ए-जुज्ब-ए-रदीफ़ैन कहते हैं और मत्ला और हुस्ने मत्ला के अतिरिक्त किसी शे’र में यदि रदीफ़ का तुकान्त पूरा एक शब्द या पूरी रदीफ़ मिसरा-ए-ऊला के अंत में आ जाये तो उसे लज्तमा-ए-तक़ाबुल-ए-रदीफ़ैन कहते हैं। आज इतना ही मिलते हैं अगले भाग में तबतक के लिए जय हिंद।

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