ग़ज़ल कैसे लिखे?

वाव-ए-अत्फ़ क्या है?

दोस्तों यह भी इज़ाफ़त की तरह ही शब्दों को जोड़ने का एक नियम है। मैं आप सभी को बता दूँ कि जिन्हों ने इज़ाफ़त नहीं पढ़ा है वो हमारे पिछले एपिसोड ग़ज़ल लिखना सीखे भाग-10 जरूर पढ़ ले।
तो दोस्तों वाक्य पूरा करने में कईं बार आपने देखा होगा कि कहीं कहीं शब्दों को या दो वाक्यो को भी जोड़कर एक वाक्य बनाए जाते हैं।
जैसे कुछ शब्दों को जोड़कर देखिए- शुबह और शाम,रात तथा दिन,मीर और ग़लीब अब इन तीनों शब्दों में अत्फ़ का प्रयोग कर के नीचे हम और छोटा बना सकते हैं जैसे देखिए👇

शब्द अत्फ़ का प्रयोग करने पर
शुबह और शाम- शुब्हो-शाम
रात तथा दिन रात-ओ-दिन/रातोदिन
मीर और ग़ालिब़ मीरो-ग़ालिब

और भी बहुत से शब्द ऐसे ही बदलकर बनाए जा सकते हैं; लेकिन इसमें आपको यह जरूर ध्यान रखना होगा कि वाव-ए-अत्फ़ लगाने पर शब्दों के स्थान में कोई बदलाव नहीं होते वो वैसे ही अपनी जगह बने रहेंगे।

हिंदी में वाव-ए-अत्फ़ का प्रयोग

आप इतना समझ ले ग़ज़ल में ज्यादा से ज्यादा जो बदलाव या शब्दों के साथ छेड़-छाड़ किया गया है वो सिर्फ उर्दू शब्दों के साथ ही किया गया है हिंदी में कोई बदलाव नहीं होगा,हाँ बहुत कम शब्द हैं जिसको बदला जा सकता हैं या आप इसे ऐसे समझ ले कि जिन उर्दू शब्दों को इज़ाफ़त और वाव-ए-अत्फ़ लगाकर बदला गया है वहीं शब्द को हिंदी में नियम लगाकर नहीं बदला जा सकता जैसे-दिन और ईमान को वाव-ए-अत्फ़ लगाकर दिनो-ईमान लिखा जा सकता है लेकिन हिंदी में इसे दीन-ओ-ईमान लिखा जाएगा।
दैर व हरम -‘दैरो-हरम’ हो जाएगा लेकिन यही नियम हिंदी में नहीं होगा जैसे- आप सुबह(उर्दू शब्द) और संध्या (हिंदी शब्द) अब इन दोनों को मिलाकर लिखे तो सुब्ह-ओ-संध्या होगा जो कि बिलकुल गलत हैं,आप खुद इसे पढ़ने में ही अटपटा महसूस कर रहे होंगे।

नोट:- ध्यान रहे! जिस तरह उर्दू और हिंदी शब्दों को एक साथ कर के जिस तरह वाव-ए-अत्फ़ लगाकर नहीं बदला जा सकता उसी तरह उर्दू और फ़ारसी को एक साथ कर के इसमें वाव-ए-अत्फ़ लगाकर आप कोई बदलाव नहीं कर सकते, हाँ लेकिन सिर्फ फारसी,या सिर्फ हिंदी,या सिर्फ उर्दू शब्द रहे तो उसमें बदलाव किया जा सकता है।

मात्रिक बह्र

आपने कईं बार ऐसी ग़ज़लें पढ़ी होंगी जो पढ़ने में तो बेहद अच्छी लगती हैं लेकिन जब आप उसकी मात्रा गणना करते हैं तो आप बहुत उलझन में पड़ जाते हैं और आपको लगता है कि यह ग़ज़ल बेबह्र है किंतु जब आप शायर का नाम पढ़ते हैं तो आप एक बार फिर उलझन में पड़ जाते हैं कि इतना मसहूर शायर यह गलती कैसे कर सकता है तो आज इसका भी सामाधान हो जाएगा।
मात्रिक बह्र की खास बात यह है कि इसमें जब ग़ज़लें लिखी जाती हैं तो पढ़नेवाला जबतक गौर न करे तबतक उसे लगता हैं कि ग़ज़ल के दोनो शे’र अलग-अलग मात्राओं में लिखे गए हैं। इस बह्र में 11 मात्रा को कई जगह 2 मानकर पढ़ा जाता हैं, इसे अगर आप लिखने के अनुसार इसका तक़्तीअ करें तो आपको दोनो शे’र अलग-अलग मात्रा में लगेंगी क्यूँकि यह एक लयात्मकता पर जोर दे कर लिखी जाती है।
आप बस इतना समझ लीजिए कि यह हिंदी छंद जैसा ही है।

मात्रिक बह्र पे मीर का विशेष प्रभाव:- 1750 के दशक में एक बहुत ही मसहूर शायर मीर का इस रचना पे विशेष प्रभाव रहा उन्होंने ने अपनी अधिकतर ग़ज़लों में मात्रिक बह्र का प्रयोग किया है। मीर का इस बह्र पे इतना प्रभाव पड़ा की इसे ‘बह्रे-मीर’ भी कहा जाता है।
नीचे उनके लिखे एक शे’र के साथ उदाहरण प्रस्तूत है👇

उदाहरण –

पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है
~मीर तक़ी मीर

आइये अब इस शे’र की तक़्तीअ देखे –

पत्ता / पत्ता / बूटा / बूटा / हाल ह / मारा / जाने / है
22/22/22/22/211/22/22/2
जा(ने) न / जाने / गुल (ही) न / जाने / बा(ग़) तो / सारा / जाने / है।
2(1)1/22/2(1)1/22/21(1)/22/22/2
जिस अक्षर कि मात्रा गिराई गयी है उसे कोस्ट किया गया है

हम जब इस शे’र की तक़्तीअ करते हैं तो हम देखते हैं कि दोनों पंक्तियों का मात्रा क्रम अलग-अलग है, लेकिन पढ़ने पर इसकी लयात्मक्ता सही है तथा शे’र बेबह्र नहीं लगता है। यही इस बहर की ख़ास बात है कि इसमें कहीं भी 11 को 2 अनुसार पढ़ा जा सकता है। दोनों मिस्रों की मात्रा देखें-
22/22/22/22/211/22/22/2
211/22/211/22/211/22/22/2
इन दोनों अरर्कान को 22/22/22/22/22/22/22/2 के बराबर मान लिया गया है।

आज इतना ही फिर मिलते हैं अगले एपिसोड में तबतक के लिए जय हिंद दोस्तों।

 

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