साहित्य-सागर
पाँव उपानह काठ नहीं तब,
जंगल घूम रही मन मोहन।
राग विराग बसा मन मंथन,
वो पिय देख रही मन मोहन।।
बाट रही अखियाँ पथ पागल,
मीत मिलें किस राह सुहागन,
चूनर लाल ललाम लिए वह,
प्रीत पिया पग धूल पखारन ।।
~डॉ• निशा पारीक