जिंदगी में यूँ कुछ फलसफ़ा होता गया।
और फिर यूँ उन से फ़ासला होता गया।
रात अपने हम में चाँदनी खोती गयी,
दिन ‘भी’ अपने हम में रौशनी खोता गया।
नफ़रतों की बारिश आप यूँ करतें गए,
मैं मुहब्बत को यूँ बेसबब बोता गया।
वो मुझे हसते हीं छोड़कर यूँ चल दिए,
और राहों पे मैं बारहां रोता गया।
चीज़ क्या है आखिर ये मुहब्बत क्या कहें,
आदमी क्यूँ इसको लाश सा ढोत गया।
यूँ कि हर शै ने बर्बाद कर डाला मुझे,
वो उमर भर ही जिसको ‘मै’ संजोता गया।
धूल में ‘श्रेयस’ लिपटी हुई तो रूह है,
क्या सितम है तू बस जिस्म को धोता गया।
संदीप कुमार तिवारी ‘श्रेयस’