अपने-अपने लोग अपने लोग अपने खो गएँ।
हमने महफिल को पुकारा और तन्हा हो गएं।
कोई बच पाया नहीं उसके नज़र के सामने,
दिल के मारे दिल लगी में दिल लगी में जो गएं।
पहरेदारी दर्द की लंबी समय चलती रही,
जगते-जगते रात कुछ आँसू हमारे सो गएं।
मेरे हक में फैसला था इस जमीनी का नहीं,
हम भी ये किसकी जमीनी पे फसल को बो गएं।
वैसे तो कोई हमें अपना कभी समझा नहीं,
हम तो बस रिश्तों ‘को’ यूँही मसकरी में ढो गएं।
जिनको मेरे इश्क का कुछ भी नहीं ख़ैरो खबर,
हम तो उनके नाम कितने ख़्वाब को संजो गएं।
हमको जिस से जो मिला सब ले लिये हम प्यार से,
उसने दे डाला मुझे इक नाम ‘श्रेयस’ हो गएं।
@संदीप कुमार तिवारी ‘श्रेयस’