परमार्थ

आप दूसरे की मदद तभी कर सकते हैं जब आपके अंदर परमार्थ की भावना जन्म ले,मेरे खयाल में परमार्थ करना चाहिए क्योंकि आप अपने स्वार्थ के ऊपर उठेगें तो यह भाव जागृत होगा की ज़रूरतमंदों को मदद की जाए।

जिस प्रकार कपड़े तो बहुत आधुनिक तरह के बनने लगे है पर आपके शरीर को या फ़िर आपके मन को जो भाता है वो पहन कर जो आनंद आप महसूस करते हैं।उसी प्रकार जब आप किसी की मदद सच्चे हृदय से करते है तो आपको लगता है चलो कुछ तो जीवन में अच्छा किया,और यह अनुभूति आपको आनंद से भर देता है,मेरे विचार में यह सबसे बड़ा धर्म है,जिस धर्मों को कमाने के लिए कोई आडंबर नही रचना पड़ा आशीर्वाद हेतु उस व्यक्ति के हृदय में सदा के लिए आसीन हो जाते हैं।

वास्तव में आज के समय में मदद की भावना हर हृदय में जागरण नही करता, यह भावनायें उनके ही मन के कोने में झीझीर कोना खेलते हैं जो दयालु और ज़िद्दी होते है,इनके मन में ना जाने किन किन भावनाओं के कोपलें फूटने लगते हैं एक तो होते जो दया के मूर्ति होते जिन्हें सब उनके मन जैसा ही पवित्र दिखता है,दूसरा दृष्टांत कुंतीपुत्र कर्ण जो दुर्योधन के हर गुण अवगुण को माथे चढ़ाकर अग्रिम परिणाम जानते हुए भी मित्रता निभाते रहे जब तक मृत्यु की गोद सो ना गये। पर यह नियम कलयुग में नही चलता, यह तो द्वापर की बात थी। इस युग में कुछ लोग टकरा भी जाते है तो सोचते हैं अब तो भाग्योदय हो गया, मन होता की पहले सशांक दंडवत किया जाए फिर इनके मन को पढ़ा जाए उनसे प्रश्नों का बौछार कर दें। मददगारों को भी समय का प्रभाव पड़ा है अब वो भी समयानुसार ज़रूरतमंदों के हाव भाव को बड़े गौर से निरखने लगते हैं, शनैः शनैः मददगार उनके भाव के अनुसार मदद करने लगते हैं।कमाल की बात यह है जिसको आप मदद करेंगे वो भी मौकाप्रस्त होता है। और अपना रंग गिरगिटों की भांति रंग बदल लेता है।

अपितु मददगार व्यक्ति अपना भाव तब भी वही जागृत रखता है।

 

                                                                                               रानी प्रियंका वल्लरी 

 

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