जादू का पिटारा

 

“ए! रमैय्या! क्या सच में ही उस जादू के बक्से में परियों का नाच होगा?”
“तेरा सिर! अभी से क्यूं पागल हुई जा रही है…शाम को जब चलेगा तब देख लेना!”
“अम्मां! बस आज के दिन मेरा कहना मान लो! फिर कब्बी कुछ नहीं कहूंगी।”
“मेरा राजा बेटा! जल्दी- जल्दी दूधू पियेगा ना… तो बाबूजी तुम्हें जादू का पिटारा दिखा कर लाएंगे।” “अरी, भागवान! कहां मर गयी? जल्दी से मेरे नये कपड़े निकाल कर दें। कहीं मैं पीछे न रह जाऊं।”
गांव भर में… क्या गली… क्या चौराहा… क्या बैठक… जहां देखो, जिधर देखो… वहां हलचल, चहल-पहल और शोरगुल मच रहा है। बहस हो रही है… शर्त लगाई जा रही है। कुछ को उस बात में पूरी आस्था… पूरी सच्चाई नज़र आ रही है… जबकि, कुछ उसे सिरे से ही खारिज किये दे रहे है।
“झूठ है जी सब…ऐसा हो ही नहीं सकता।” हलधर काका अपनी बात पर अडिग रहते हुए बोले।
“हो क्यों नहीं सकता काका… जरुर हो सकता है।” रमैय्या ने कहा, “शाम होने में अब देर ही कितनी बची है…”
“हमने अपनी पूरी उम्र बिता दी इसी गांव में…आज तक तो ऐसा करिश्मा…न देखा, न सुना!”
“अब देख लेना काका… करिश्मा तो होगा ही।”
दोनों में से कोई भी झुकने को तैयार न था। अपनी-अपनी कहीं बात पर दोनों ही पक्ष अडिग थे। विचार टकरा रहे थे… और सच पूछो तो दो भिन्न-भिन्न पीढ़ियां अपनी-अपनी श्रेष्ठता साबित करने पर तूली हुई थी। मैं यह देख हैरान था कि पुरानी पीढ़ी जिसे मार्गदर्शन की भूमिका में होना चाहिए था…नयी पीढ़ी के सामने एक आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए था… वहीं अड़ियल रुख अख्तियार किये … प्रतिद्वंदी बनी हुई थी।
पर, हमें यहां न नयी पीढ़ी को कुछ देना है… और न पुरानी पीढ़ी से कुछ लेना। और सच पूछो तो करीबन महीने भर पहले ही भरी चौपाल में जमींदार रामशरण बाबू ने यह कहकर सनसनी मचा दी थी कि अबकी बार वह शहर से ऐसा ‘जादू का पिटारा’ लेकर आने वाला है, जिसमें परियों का नाच तो होगा ही…बैठे-बिठाए भगवान के दर्शन भी होंगे। यहीं कारण है कि गांव में जिससे सुनो यही बात सुनाई दे रही है। सास-बहू अब एक दूसरे की पीठ पीछे बुराई नहीं करती…जादू के पिटारे पर बात करती है। बाप…नालायक बेटे को कोसने की जगह चौपाल पर इसी मुद्दे पर बहस करना कहीं अच्छा समझता है।
गांव भर में उत्सव जैसा माहौल है।
दरअसल बात यह है कि इस दिन जमींदार बाबू के घर टीवी लगेगा।
पूरा गांव चौपाल में इकट्ठा होकर उनके लौटने का इंतजार कर रहा है। सरपंच व नंबरदार के साथ वे कभी भी गांव में पहुंच सकते है। आखिरी बस कभी भी गांव के बस अड्डे पर पहुंच सकती है। युवाओं की एक टोली ढ़ोल नगाड़ों के साथ स्वागत करने के लिए पहले ही वहां डटी हुई है। लोगों के लिए हर गुजरता हुआ पल भारी हो रहा था।
उनमें झुंझलाहट बढ़ रही थी- “आज बस को क्या हो गया? वह आ क्यों नहीं रही!”

आप सोच सकते है- इतनी छोटी-सी बात के लिए इतना शोरगुल!
लेकिन, छोटी-सी बात होगी तुम शहर वालों के लिए…हम गांव वालों के लिए तो वह कभी न भुलाई जा सकने वाली… गांव के इतिहास में सुनहरे हर्फो में अंकित ‘अविस्मरणीय’ घटना थी। जिसका गवाह बना…समूचा गांव।

 जमींदार बाबू सरपंच जी व नंबरदार को ढ़ोल नगाड़ों के स्वागत के साथ चौपाल तक लाया गया। चौपाल से पूरा गांव जुलूस की शक्ल में चला। चौपाल के साथ लगता रामसहाय का ओसारा था, बगल में शिव का मंदिर, गली के छोर पर 'बनियो' की खाली पड़ी हवेलियां थी। जबकि, गली के दूसरी ओर चौपाल के ठीक सामने पुजारी जी का खपरैल का कच्चा-पक्का घर था। पूरब दिशा में दूर दूर तक फैले खेत थे, जिनमें गेंहू की फसल लहलहा रही थी... खेतों को पार करने पर जंगल पड़ता था, जो अब केवल नाम मात्र को ही बचा था। दक्षिण दिशा में बस अड्डा था, उसके साथ लगती नाई... हलवाई... फोटोग्राफर...खाद-बीज... मोबाइल रिचार्ज व रिपेयरिंग की दुकानें एक कतार में कुछ ही साल में उग आई थी। दुकानों से कुछ हटकर हाॅस्पिटल था... जिसमें कभी कभार ही डाक्टर बैठता था... और गांव के लोग बीमार पड़ जाने पर भगवान भरोसे... सयाने छपटो के रहमो-करम पर जिंदा थे। पश्चिम दिशा में कुछ कुम्हारों के घर थे...तो कुछ मनियारो के भी घर थे। जाट अब भी गांव के बिसवेदार थे... और गांव का सरपंच चुनने में महती भूमिका अदा करते थे। जाटों के साथ मुंह टेढ़ा कर सरपंच बनने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था... इसलिए सब जाटों के साथ बनाकर रखते थे। गांव की उत्तर दिशा में स्कूल था... स्कूल में अध्यापक कम और बच्चे ज्यादा थे। स्कूल के साथ लगता आम का बगीचा था... और कहने की आवश्यकता नहीं कि बच्चे स्कूल में कम...बगीचे में अधिक नज़र आते।
 गांव भर का चक्कर लगाने के बाद जुलूस जमींदार बाबू के घर पहुंचा। घर की औरतों ने सबसे पहले 'जादू के पिटारे' को हल्दी लगाई फिर कुमकुम का टीका लगाया। सरपंच की पत्नी ने थाल संभाला तो नंबरदार की पत्नी गायत्री ने कर्पूर जलाकर आरती उतारी... पुजारी जी ने जोर जोर से मंत्र पढ़ें, और बस! यह कार्यक्रम पूर्ण होते ही शहर से साथ आएं एक्सपर्ट ने मोर्चा संभाला...छत पर 'एंटिना' लगाया गया... कुछ तार टीवी में...कुछ तार बोर्ड में लगाये गये। रिमोट जमींदार बाबू ने स्वयं अपने हाथ में रखा... एक्सपर्ट का इशारा मिलते ही उन्होंने जाने कौन सा बटन दबाया... और लो जी हो गया चमत्कार!
 परियां भी नाची (परियों का नाच भी हुआ) मौसम का हाल भी देखा (कहां छिटपुट बारिश होगी... कहां-कहां बादल छाए रहेंगे... कहां धूप खिली रहेगी)...मंडी के भाव भी सुने... हनुमान जी को लंका जलाते देखा...अशोक वाटिका में जनक दुलारी उदास सीता देखी... भगवान श्रीराम के दर्शन किये... लंकापति रावण का घमंड टूटते देखा... और तो और सलीमा के गीत भी देखे... देवानंद का अभिनय देखा... मधुबाला की मुस्कान देखी...सब कुछ तो देखा। ऐसा लगा मानो उस छोटे से 'जादू के पिटारे' में समूचा ब्रह्मांड समाया हुआ था।
   फिर तो क्या बच्चा, क्या बूढ़ा क्या जवान क्या सास, क्या बहू जिसे देखो वहीं जमींदार रामशरण बाबू के ओसारे में आ जुटते। बच्चों को एक गिलास दूध पिलाने में ही जहां पहले घंटा- पौना घंटा लग जाता था... वहीं अब फटाफट दूध के गिलास खाली होने लगे... स्कूल से आते ही लड़के होमवर्क निपटाने में लग जाते... वहीं घर के काम को लेकर सास-बहू की चिख-चिख बंद हो गई...ताश के शौकीन बूढ़े अब ताश के नाम से ही नाक भौं सिकोड़ने लगते।...सच तो था ही... गांव में कैसा तो परिवर्तन हुआ था। एक पूरा का पूरा उपन्यास लिखा जा सकता था लेखक के द्वारा...बासू चटर्जी (बासू दा) इसपर एक सफल फिल्म बना सकते थे।
 "जमींदार जी...टीवी पर रामायण लगा दो। देखे, राम की वानर सेना आज क्या कमाल दिखाती है!"
"अभी कहां... पहले तो शाम तो होने दो।"

“कब बारिश होगी…कब धूप निकलेगी… अब पहले से ही जान सकते है हम!”
“बाबूजी अब बनिया हमें लूट (ठग) नहीं सकता। फसल के मनचाहे औने-पौने दाम बताकर ठगने का जमाना अब गया समझो। जायज रेट पर खरीदेगा तब ही बनिये को फसल बेचेंगे…वरना नहीं!”
“घरवालों से बहाना बना शहर जाकर सलिमा तो नहीं देखना पड़ेगा!”
“ऐ…ऐ! जरा पीछे हट कर बैठ रमैय्या! ज्यादा पास जाकर बैठेगी तो चश्मा लग जाएगा आंखों पर!”
“देखो न अम्मां! यह मुझे पास बैठ कर टीवी देखने नहीं देता। और खुद देखो… कैसे घूसा जा रहा है टीवी में।”
इस तरह चुपचाप हर किसी की जिंदगी में टीवी शामिल हो गया। और ठीक भी तो है। जमींदार रामशरण बाबू के टीवी के कारण ही पढ़-लिखकर कितने ही बच्चे बड़े अफसर बन गये। न जाने कितनी ही सास-बहू साथ बैठ कर नाटक देखती थी। गांव के बड़े बूढों के ताश छुड़वाने में भी इस टीवी का अहम योगदान था।
यह सच है कि उन दिनों सारा गांव एक परिवार की तरह मिल-जुलकर जमींदार रामशरण बाबू के ओसारे में बैठ कर टीवी देखता था।
आज घर-घर टीवी दस्तक दे चुका है, लेकिन…!

                                                                  —बलजीत गढ़वाल ‘भारती’

                                       

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