नगमा ए जिंदगी

 

पार्वती की घनिष्ठ मित्र मीनाक्षी ने एक दिन उनसे कहा,पारो!चलो…एक साहित्यिक गोष्ठी में चलते हैं,तुम्हारा मन बदल जाएगा। बच्चे अपने अपने काम पर चले गये हैं तो क्या ?
बड़ी मुश्किल से वह साथ चलने के लिए तैयार हुईं।

गोष्ठी स्थल पर उन्होंने देखा कि सभी रचनाओं का पाठ कर रहे हैं तो उन्होंने भी अपनी रचना सस्वर सुनाई।

जोशीली आवाज,सुरमयी कविता से पूरी सभा से आपको खूब तारीफ और तालियाँ मिली। परिणाम स्वरूप पार्वती का खोया हुआ आत्म विश्वास और जीने की ललक फिर से जागृत होने लगी।

पार्वती जी की रचनाधर्मिता से उनकी कल्पनाएं पंख पाकर आसमान की ऊँचाईयों को छूने लगीं। जाहिरन ख्याति भी दूर- दूर तक हुई।

बहुत से उनके प्रशंसक उन्हें खत लिखकर बधाईयाँ देते तो कुछ फोन पर भी प्रशंसा करते। पार्वती जी अपने इस संसार में जैसे डूब सी गयीं। फेसबुक पर उनकी रचनाओं ने धमाल मचाया हुआ है। हर ग्रुप उनकी वीडियो रिकॉर्डिंग अपने मंच से पेश करने के लिए उन्हें आमंत्रित करने लगा है। व्यस्तता इतनी बढ़ गयी कि दो रोटी भी चैन से बैठ कर नहीं खा पातीं वे। कभी किसी का फोन कभी अपनी रचना पढ़वाने और समीक्षा लिखवाने के लिए लम्बी फेहरिस्त ।

एक दिन रविवार था …..वह आराम से अपने गार्डन में प्रकृति का आनंद ले रही थीं,कि फोन की घंटी बजी …पार्वती जी ने कॉल रिसीव की तो दूसरी ओर से एक दमदार आवाज ने कहा ,”हलो! मैडम जी ! मैं आपका प्रशंसक बोल रहा हूँ…आपकी रचनाओं ने मुझे दीवाना बना दिया है।”

पार्वती जी ने कहा,,” शुक्रिया जी! हौसला अफजाई के लिए।”

“क्या मैं आपसे कभी मिल सकता हूँ? मैडम!”

“इसकी क्या आवश्यकता है ?…आप मेरी रचनाओं के माध्यम से तो मुझसे मिल ही लिए हैं। कभी मिल लीजिएगा किसी गोष्ठी में।”

“मैडम! आप नहीं समझ सकतीं, मुझे आपकी रचनाएं उद्वेलित करती हैं । आपसे रूबरू मुलाकात करना चाहता हूँ । प्लीज!”

“सर जी ! मैं व्यस्त हूँ।” पार्वती जी ने टालते हुए कहा।

“ठीक है मैडम ! मैं सहमति की प्रतीक्षा करूँगा।”

वे बेसब्री से प्रतीक्षा करते,पर मैडम तो जैसे भूल ही गयी थीं।

अंततः उनको लगा कि अनुमति की क्या आवश्यकता है। उन्होंने मैडम की पुस्तक के पीछे छपे उनके पते को एक कागज पर लिखा और अपनी जेब के हवाले कर दिया।
दिमाग में बड़ी उलझन थी कि क्या कहूँगा। सीधे अपना परिचय दूँ या पहले मैडम का मिजाज परख लूँ। उन्हें एक विचार आया । क्यों न मैं माली बनकर जाऊँ। अतः अपनी धूल जमी साइकिल को उन्होंने झाड़ा -पोछा और नर्सरी की ओर चल दिए। बीस- पच्चीस पौधे टोकरी में रखे और एक खुरपी भी वहीं से खरीद ली। एक गमछा अपने कंधे पर लटका लिया। गाँधी टोपी खरीद कर सिर पर लगा ली। जिससे सिर का गंजापन और बालों की सफेदी को ढकने में बहुत ही मदद मिली। जैसा कि वह हमेशा ही करते थे कि एक रुई के फाहे में इत्र की कुछ बूंदें टपकायीं और अपने कपड़ों के आजू-बाजू फिरा कर रूई को कान के हवाले कर लिया। हुलिया देखने लायक था। ढूँढ़ते हुए पहुँच गये मैडम के दरवाजे पर और आवाज लगायी….
मौसमी फूल लगवालो जी, मौसमी फूल…..
गैंदा ,गुलदाऊदी ,डहलिया…

जब मैडम बाहर नहीं निकलीं तो तुषार जी ने डरते डरते घंटी पर अपनी उंगली रखी और दबा दिया।

कुछ ही मिनट में पार्वती जी बाहर आयीं और पूछा,,” बताईए ,क्या बात है?”

“मैडम ! मैं माली हूँ,मौसम के फूल लाया हूँ लगवा लीजिए।”

“अभी नहीं , बाद में लगवाऊँगी।”

मैडम! कम पैसों में लगा दूँगा,आजकल बड़ी बेरोजगारी है। चार पैसों को जुगाड़ होगा तो चूल्हा भी जल जाएगा।

मैडम को लगा कि शायद इसे जरूरत है तो काम ले लेना चाहिए।

उन्होंने गेट खोलकर उसे अंदर बुला लिया और अपने बगीचे में वह सभी पौधे लगवा लिए जो उसके पास थे।

बहुत सी बातें हुईं इसी बीच। जैसे तुम्हारा घर कहाँ है? कितने बच्चे हैं?

माली बने तुषार जी ने भी बताया कि उनकी पत्नी अब इस दुनिया में नहीं हैं। बच्चे बड़े हो गये हैं,अपने शहर में अलग-अलग रहते हैं। वह खुद अकेले हैं… आदि-आदि।

इधर तुषार जी सोच रहे थे कि यह तो बड़ी छोटी सी मुलाकात हुई। उन्होंने कहा,” मैडम! क्या मुझे आपके यहाँ माली का काम मिल सकता है ? मुझे गाड़ी चलाना भी आता है और बढ़िया खाना भी बना लेता हूँ।”

“अगर तुम्हें वास्तव में पैसों की जरूरत है तो माली का काम कर लो एक महीने । जब जरूरत हो तब गाड़ी भी चला सकते हो और खाना तो जब बच्चे आएंगे तब बनाना। मुझे अपने लिए तो कोई परेशानी नहीं है।”

तुषार जी उस दिन तो मैडम का दीदार करके और अपनी मेहनत का पैसा लेकर वापस आ गये।

दूसरे दिन फिर वही साइकिल और वही हुलिया। चल दिए मैडम जी के घर ,बजा दी घंटी…

मैडम जी ने दरवाजा खोला और माली तुषार को लगा दिया अपने बगीचे के काम पर और खुद वहीं पड़े हुए झूले पर अपना अध्ययन और लेखन करती रहतीं। वहीं तुषार जी से बातें भी हो जातीं। चाय पीतीं तो एक कप चाय तुषार जी को भी मिल जाती।

बात करने का जरिया मिलते ही तुषार जी भी बता देते ..

“मैडम! चाय बनाना कोई आसान काम नहीं है। मेरी भाभी जब चाय बनाती थीं तो चाय की खुशबू से ही पता चल जाता था कि रसोई में चाय कौन बना रहा है। वह चाय के साथ अपनी कविता भी गाती थीं और वहीं पर लिखती रहती थीं।”

कविता नाम सुनते ही मैडम के चेहरे पर रौनक आ जाती और वे उसे अपनी ताजा लिखी रचना सुना देतीं।

तुषार जी भी तारीफ कर देते और साथ में कह देते , “मैडम ! आप कैसे लिखती हैं इतना अच्छा , मैं क्यों नहीं लिख पाता , जबकि मैं भी बी ए पास हूँ।”

“बी ए पास और छील रहे हो घास”मैडम आश्चर्य से तुषार जी का चेहरा पढ़ने लगतीं और पापी पेट को कोसतीं…हे भगवान! तुमने ये भूख क्यों लगा दी है इंसान के पीछे।

तुषार जी कभी कभी चाय और नाश्ता भी बनाने लगे मैडम के लिए। आवश्यकता पड़ने पर गाड़ी भी चलाते हैं। इसके साथ ही मैडम को भी गाड़ी सीखने के लिए तैयार कर लिया है। और अब वे चार पहिए की गाड़ी चलाना सीख रही हैं तथा तुषार जी उनकी कम्पनी का छद्म सुख ले रहे हैं। वे नहीं चाहते कि मैडम जल्दी से सीख जाएं बल्कि उनकी दिली इच्छा है कि आहिस्ता-आहिस्ता सभी काम चलते रहें…
वह कभी कभी गुनगुना लेते हैं…

एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है
जिंदगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है

मैडम भी भूल चुकी हैं कि कोई उनसे मिलना चाहता था…..

 

                                                      —–मीरा परिहार

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