सीधी डगर पिया के घर की
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सीधी डग र पिया के घर की
जोड़ दिए तुम मोड़ डगर में।
भ्रम का तन भटकन का अचकन
पहन लिए तुम सरल सफर में।
जल का भ्रम भर-भर जो लोभा वह था छल; था धूसर ऊसर,
स्वर्ण – हिरण का सत्य पता था किंतु रहे पीछे जीवन – भर,
गूढ़ ज्ञान विज्ञान मूढ़ से रहे देखते और चपल पग-
जटिल लता गुल्मों के वन में उलझे; सुलझे पंथ बिसर कर,
खरचे तुम पाथेय उमर का विरथ डगर में निरथ नगर में।
सीधी डगर पिया के घर की जोड़ दिए तुम मोड़ डगर में।
चंचल-मन का झूला झूला निश-दिन; भूला पल-भर ठहरन,
अभिलिप्सा के कुटिल कृषक ने रोप दिया अड़चन के सौ वन,
तुमने थपकी दे कर झपकी में डाला प्रज्ञा का शिशु औ-
किंशुक में मधु-गंध खोजते बिसरे तुम चंदन के कानन,
श्वसन – वसन कर डाले मैले धो-धो मटमैले गहवर में।
सीधी डगर पिया के घर की जोड़ दिए तुम मोड़ डगर में।
जब तुम सघन सघन नव घन थे मगन रहे कुछ और गगन में!
कब कुछ सुमन फुल्ल उपवन के जोड़े तुम मंदिर-प्रांगण में!
रहे भूलते धरती प्रीतम की वसंत के पैराहन में-
पीत पात पतझड़ के होकर लगे विकल गिरने आंगन में,
चाह गई रक्खी तट की औ भटक गई नैया सागर में।
सीधी डगर पिया के घर की जोड़ दिए तुम मोड़ डगर में।
कृष्ण बिहारी शर्मा