भूख से सब खा रहे हैं आग में सूरज डुबो कर।
हम ज़मी पे आ गए हैं आसमां सें आज हो कर।
इस सियासत के क़फ़स से कल मिले आराम लेकिन,
कौन जीता तब तलक है सीने में नश्तर चुभो कर।
क्यूँ तरस खाऊँ नहीं उन किसानों के शक्ल पे मैं,
धान गेहूँ बेचते हैं खेत में सब खून बो कर।
लोग जो सब का भला करते रहे हैं ज़िंदगी भर,
लाश अपनी आज वो ही खुद चलें कांधे पे ढो कर।
हाथ से जो पोछ डाला था कभी आंसू हमारा,
आज वो ही चल दिया है आँख से दामन भिगो कर।
इश्क़ के ज़ज़बात में हम बह गए थे एक दिन अर,
आज फिर पछता रहे हैं खुद के हाथो गैर हो कर।
आदमी तो एक दिन ‘श्रेयस’ यहाँ होता है लेकिन,
कुछ अमीरी के नशे में जी रहे हैं धर्म खो कर।
©️संदीप कुमार तिवारी’श्रेयस’