संपादकीय-अनुरोध

 

 

निकल पड़ा जो राह में उससे ये मत पूछना कि कहाँ जाना है यह धरती कहीं मुसाफ़िरों की मंजिल है कहीं परिंदों का ठिकाना है

मैं जब भी इस शरीर रूपी मिट्टी के बर्तन के भीतर झांकता हूँ तो मैं उन्हीं तत्वों को देखता हूँ जिनसे संसार के हर जीव बने हैं चाहे वो कोई मनुष्य हो,पशु-पक्षी या पेड़-पौधे।मेरी ग़ज़ल का एक शे’र है कि _ _ _

उसी का अंश है सब में बने हो तुम जिस से,

यहीं समझ के   सभी  को गले लगाना तुम।

कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस में कितने प्रकार के जीव हैं,मुझे तो यह सारा संसार एक परिवार लगता है।

मेरा मानना है जिस तरह कुम्हार एक ही मिट्टी से अनेक बर्तन बनाता है,परमात्मा ने भी बिलकुल वहीं किया;लेकिन परमात्मा की कारीगरी अद्भुत है इस में कोई संदेह नहीं।

मैं जब किसी कुम्हार को चाक नचाते हुए देखता हूँ तो ऐसा लगता है जैसे वो ही अपना उदाहरण दिखा रहा हो,ऐसा लगता है कि वो हमसे कह रहा है, ले देख मैंने तुम से कुछ नहीं छुपाया इस कुम्हार को देख और फिर मुझे पहचान!

मुझे हँसी आती है उन लोगों पे जो थोड़ी सी उपलब्धी पा कर खुद को बहुत बड़ा समझ लेते हैं जब कि इस पृथ्वी का भी अस्तित्व इस संसार में रेत के एक कण जितना भी नहीं और उसी पृथ्वी पे खड़ा हुआ एक आदमी खुद को भगवान समझ बैठे तो सोचिए कि पागलपन की क्या सीमा हो सकती है।

इसलिए मेरे प्रियात्मन् जीवन जैसे भी चल रहा है उसका आनंद लें हर एक के अंदर कुछ-न-कुछ प्रतिभाएँ होती ही हैं उसे पहचाने और उनसे जुड़कर जीवन में आगे बढ़े।

आप कितना भी धन इकट्ठा कर ले, सुविधाएँ खरीद ले लेकिन एक समय के बाद सब नीरस हो जाता है,आनंद खो जाता है,वही अगर आप किसी कोने में बैठ कर एक कविता भी लिखते हैं,  

हांलाकि इससे आपको भले ही भौतिक रूप में कुछ मिले या ना मिले लेकिन कविता पूरी हो जाने के बाद इसका जो आनंद आपको मिलेगा वो कभी न समाप्त होने वाला होगा क्योकि ये कविता आपकी प्रतिभा है।

प्रतिभाएँ अलग-अलग हो सकती हैं लेकिन उनसे निकला हुआ आनंद एक ही होता है।साहित्य भी उन्ही प्रतिभाओं का एक हिस्सा है,अगर आप भी साहित्य में रूचि रखते हैं तो आइए हम एक साथ इस साहित्य सरोवर में गोता लगाएँ।

                                             – संदीप कुमार तिवारी ‘श्रेयस’