रात मेरी एकांकीपन की

मैने मान लिया है कि जीवन अकेले चलने का नाम है और मुझे इस बात की बेहद खुशी है।
जब आपके साथ कोई नहीं होता है तो वो जरूर होता है जिसने आपको बनाया।
अब मैं मेरे भरोसे की बुनियाद पे जीता हूँ
एक पत्थर सा कठोर सच के साथ।
रोज गोते लगाता हूँ तालाब में जहाँ से लोग शीप से मोती निकाल लाते है,मैं महज़ कुछ कंकर ही निकाल पाता हूँ।
मुझे कंकर अच्छे लगते हैं इनका सौदा नहीं होता।
दूर क्षीतिज में अपने प्रकाश से आँखों को चौंधिया देने वाला सूरज मेरे लिए अंधेरा ले आता है और फिर रात आती है,ये रात मेरी एकांकीपन की हर रोज आती है,मैं बहुत खुश होता हूँ इस तीमिर के साथ ये मुझसे कोई सवाल नहीं करती मुझे डांटती नहीं, सताती नहीं, मेरी तरक्की को देखकर ही मेरे साथ नहीं जुड़ती।
रात बस आ जाती है बिन बुलाए महमान की तरह,माँ की लोरी की तरह दादी की परियों वाली कहानी लिये,
ये रात मुझसे निराश नहीं होती,कभी रूठती नहीं,मुझे छोड़ जाने की धमकियाँ नहीं देती,इसने मुझे कभी नहीं रूलाया।
ये रात, मैं जैसे हूँ मुझे वैसे ही स्वीकार करती है और बेझिझक मुझे अपने आगोश में ले लेती है और मैं सो जाता हूँ इसकी बाहों में अपनी सारी थकन को भूल कर। उफ़ ये रात! रात मेरी एकांकीपन की।

©️®️संदीप🪔

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