भटक रही थी मैं अकेली आसमान में,
भरे हुए थे अधूरे अरमान दिल में।
मेरा न जिस्म था न कोई अस्तित्व
मन ढूंढ रहा था एक आशियाना।
तब तेरा बुलावा सुनकर आई,
पाई तेरे गर्भ में ठिकाना।
अपने अस्तित्व से गढ़कर तूने दिया मुझे नूतन स्वरूप।
धड़कना सिखाया मेरे हृदय को।
फिर सिखाया,उठना,बैठना,चलना,बोलना।
मेरे अरमानों को पंख लगाकर उड़ना भी सिखाया
उन्हीं पंखों के सहारे तेरे गर्भ से-पवित्र धरती पर आई हूँ ।
दुनियां को देख रहीं हूँ मेरी माँ!
सारे संसार के नज़रों में होगी तू कोई और ही;
मगर भगवान से कम नहीं तू मेरे लिए!
– नलिनी साई