जिस्म तन्हा है रूह प्यासी है।
जिंदगी में यूँ बदहवासी है।
जा रहा है क्या खाए मुझको,
याद है तेरी या उदासी है।
माफ कब का कर भी दिया तुझको,
दिल ‘में’ पर अब भी ना-शिपासी है।
गर इबादत है इश्क तो फिर क्यूँ,
लोग कहते है ये अय्याशी है।
अब भरोसा भी है उसी पे पर,
अब भरोसा है ‘औ’ क़यासी है।
कुछ नहीं है अब यूँ ‘तो’ दिल में,
हाँ ख़लिश इस दिल में जरा सी है।
धूप तो आती ही रही ‘श्रेयस’,
क्यूँ हवा आंगन की ‘ये’ बासी है।
©संदीप कुमार तिवारी ‘श्रेयस’