जिंदा रहने को मगर और बहाना क्या है।

 

तेरी  उलफ़त  में  सनम  उम्र  गवाना  क्या  है।
जिंदा  रहने  को   मगर  और  बहाना  क्या  है।

तूं मेरी जां है लो  यही  आज  भी  मैं  कहता  हूँ,
मुझको अब इसके  सिवा और  बताना क्या है।

हों   राते   रंगीन   जब   चांद    दिखे   तारों   में,
वरना   दिन  ढलते  ही  बेरंग  जमाना  क्या  है।

जब भी आते  हो  कि  जाने  के  लिए  हो  आते,
आ के जाना है तो  फिर आज ही आना क्या है।

मैं तो ‘श्रेयस’ हूँ  कि  घर-घर  दुनिया  है  बिखरी,
मुझको मयकश के सिवा और ठिकाना क्या है।

                     ✍️संदीप कुमार तिवारी ‘श्रेयस’

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