
ग़ज़ल के दोष
जैसा कि आप सभी को पता है कि हम लगभग तीन एपिसोड से ग़ज़ल की तक़्तीअ कर रहे हैं।
आज हम ग़ज़ल में उत्पन्न होनेवाले दोष को देखेंगे।
वो लोग जो इससे पहले के भाग नहीं पढ़े हैं उनसे अनुरोध है कृप्या इससे पहले का भाग, ग़ज़ल लिखना सीखे भाग-15 जरूर पढ़ ले। तो चलिए शुरु करते हैं।
ग़ज़ल में उत्पन्न होने वाले दोष क्या हैं?
देखिए ग़ज़ल एक ऐसी प्रभावशाली विधा है जो ह्रिदय के तार को छू जाती है।
इसके आकर्षक गुणों की वजह से आज यह सारी दुनिया पे राज कर रही हैं।
ग़ज़ल के कहन में अगर कोई दोष हो तो इसके प्रभावित करने वाले गुणों पे भी असर पड़ता है।
इसके अनेको दोष हो सकते हैं।
कुछ दोष ऐसे हैं जिनकी हम नीचे चर्चा करेंगे क्यूँकि इन दोषों की चर्चा करना जरूरी हैं।
आइए नंबर से हम इन सभी दोष को समझते हैं।
1.कहन का दोष
2.रदीफ़ का दोष
3.काफ़िया का दोष
4.भाषा का दोष
5.उच्चारण का दोष
6.बह्र का दोष
अब एक बात आप समझ लीजिए कि इन सभी दोष को अलग-अलग लेखको ने अपने हिसाब से तर्क देते हुए अलग- अलग रूपों में परिभाषित किया है। तो कोई जरूरी नहीं कि इसमें सबका मत एक जैसा हो। अब आइए इसे हम विस्तार से समझते हैं।
1.कहन का दोष:- अब कहन के दोष को मैं चाहता तो तीसरे नंबर पे भी डाल सकता था लेकिन मैं इसे पहले नंबर पे ही इसलिए रक्खा क्यूँ कि आप कैसे लिख रहे हैं क्या लिख रहे हैं यह तभी सामने आता है जब आप कहीं जा के किसी के सामने उसे सुनाते हैं।
ग़ज़ल लिखना और कहना दोनों ही का एक अपना अंदाज़ होता है। आप शब्दों का उच्चारण कैसे करते हैं।
आपके जो ग़ज़ल के मिस्रे हैं उनमे प्रत्येक मिसरे में दो शे’र होते हैं वो दोनों का मर्म एक ही होता हैं लेकिन दोनो वाक्य एक दूसरे से बिलकुल विपरित होते हैं।
अब यहाँ विपरित का मतलब यह नहीं है कि आप ऐसा शे’र लिख दे कि जिसमें पहले शे’र में आप जो बात कह रहे हैं उसे विपरित करने के चक्कर में अगले शे’र में उसी बात को आप काट दे! ऐसा भी नहीं होना चाहिए। आइए इसे समझते हैं।
तातील दोष -(तक्दीम ओ ताखिर) – मिस्रा सानी और मिस्रा ऊला में अर्थ विन्यास उल्टा हो। जब किसी शे’र के एक मिसरे में हम कोई बात कहें अथवा तथ्य प्रस्तुत करें और दूसरे मिसरे में अपनी बात को ही काट दें तो ऐब-ए-तातील पैदा हो जाता है।
ग़ज़ल में होने वाले कहन के दोष
सुस्त बंदिश (निरर्थक शब्द का प्रयोग) – किसी विचार को जब हम
कम शब्दों में बयाँ कर सकते हों, परन्तु अर्कान के अनुसार अधिकाधिक शब्दों का प्रयोग करें और अर्थ को विस्तार न दे सकें तथा एक ही बात को कई तरह से कहें तो ‘ऐब-ए-सुस्त बंदिश’ पैदा हो जाता है।
गरावत – (शे’र में बेमेल शब्द का प्रयोग)- शे’र में जब हम प्रतीक का प्रयोग करते हैं तो उनका गुण धर्म एक होना चाहिए, जैसे यदि हम किसी की सुंदरता को प्रतीक रूप में प्रस्तुत करेंगे तो फूल को प्रतीक बनायेंगे,में सुंदरता के लिए खार का प्रतीक प्रस्तुत करने से कहन का दोष पैदा हो
जाएगा। इसी तरह शीतलता के लिए चाँदनी का प्रयोग करेंगे न कि धूप का।
पहलू-ए-जम – जब शे’र में शब्द संयोजन के कारण ऐसा कोई अर्थ पहलू-लेने लगे जो अश्लील हो तो ‘पहलू-ए-जम’ एब पैदा हो जाता है।
बेमानी शे’र – जिस शे’र में अरूज़ के हर नियम का पालन हो, परन्तु उस शे’र में कोई अर्थ ही न निकल पा रहा हो तो शे’र बेमानी हो जाएगा। गजल में शे’र की संख्या बढ़ाने के लिए नौसिखिया शाइर अक्सर ऐसे शे’र कहते हैं, जिनका कोई अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता।
एक शे’र में बात पूरी न होना:- ग़ज़ल में प्रत्येक शे’र स्वतन्त्र इकाई होता है। जब एक शे’र में हम अपनी बात को पूरा नहीं कर पाते और उस विचार को आगे के अश्आर में पूरा करते हैं, अथवा किसी शे’र के अर्थ को समझने के लिए उसके पहले के शे’र को पढ़ना आवश्यक हो तो इससे कहन का दोष पैदा हो जाता है।
मुश्किल तश्वीहें (क्लिष्टता दोष)- शब्द क्लिष्टता, भाव क्लिष्टता जब शे’र में दुष्कर ढंग से प्रतीक प्रस्तुत किया जाए; शब्द संयोजन दुष्कर कर दिया जाये भाव संयोजन दुष्कर कर दिया जाए तो कहन का दोष पैदा हो जाता है।
भद्दी तश्बीह (घटिया उपमा):- जब किसी विषय-वस्तु के लिए
उसके अनुरूप उचित प्रतीक अथवा बिम्ब न प्रस्तुत करके निम्नस्तरीय प्रतीक प्रस्तुत कर दिया जाए तो कहन का दोष पैदा हो जाता है।
वे-लुत्फे तकरार – एक अर्थ के लिए कई शब्द का प्रयोग करना – एक विषय को स्पष्ट करने के लिए शब्दों को अत्यधिक प्रयोग करने से यदि शे’र का सौंदर्य बढ़ने की जगह घट जाता हो तो इसे बेलुत्फ तकरार कहते हैं।
आज इतना ही,मिलते हैं अगले भाग में।वैसे यह थोड़ा लंबा जानेवाला है लेकिन एक बात आप सभी को बता दूँ कि आपलोग यह सबसे महत्वपूर्ण विषय को पढ़ रहे हैं ग़ज़ल की बाबत में। धन्यवाद जय हिंद।