कोई अपना कहीं नहीं लगता।

 

जिसको समझा वहीं नहीं लगता।

कोई  अपना  कहीं  नहीं  लगता।

 

सिर्फ़   अब   है  जहाँ-तहाँ  साया,

आदमी   आदमी   नहीं   लगता।

 

रास  आई   तो  है  बहुत  लेकिन,

तेरी महफ़िल  में जी नहीं लगता।

 

और   तुझको   बता   कहाँ   ढूंढूं,

तू   जिधर  है  वहीं  नहीं  लगता।

 

छोड़ कर, साथ  चल  दिये  जैसे,

कोई  तेरा   मैं  ही  नहीं  लगता।

 

तेरे  बदले  बहुत   मिलें  मुझको,

तेरे   जैसा   कोई   नहीं  लगता।

 

लाख मिट्टी भी  हो  वहाँ  तो क्या,

चाँद फिर भी जमीं  नहीं  लगता।

 

       ©️ संदीप कुमार तिवारी ‘श्रेयस’

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