यूँ किसी के प्यार में क्यूँ उलझें।
उन ‘से’ हम बेकार में क्यूँ उलझें।
लोग काफी हैं दुखाने को दिल,
आपसी तकरार में क्यूँ उलझे।
अब किनारे भी डुबा सकते हैं,
हम भला मज़धार में क्यूँ उलझे।
हर ख़बर रहती ‘है’ तय पहले से,
आदमी अख़बार में क्यूँ उलझे।
जिस्म तो बारिश जला देती है,
धूप की बौछार में क्यूँ उलझे।
झूठ हर घर में खुला है बिकता,
सच ‘के’ कारोबार में क्यूँ उलझे।
ज़िंदगी ‘संदीप’ कब भायी है,
मौत से बेकार में क्यूँ उलझे।
©️संदीप कुमार तिवारी ‘श्रेयस’