अब वो शख़्स मुड़ के कभी भी इक नज़र नहीं देखता।


मिलता   है  मुझे   और  फिर  मेरे  इधर  नहीं  देखता।
अब वो शख़्स मुड़ के कभी भी इक नज़र नहीं देखता।

मसला ये  नहीं है कि  कैसे जी  रहें  उसे  खो  के  हम,
मसला   है  यहाँ   कोई   ये   मेरा   हुनर  नहीं  देखता।

कैसे देखता  है  मुहब्बत  इस  जहाँ  में  दिल  बेख़बर,
मतलब  मैं  जिधर  देखता  हूँ  तू  उधर  नहीं  देखता।

कोई भी शिकायत नहीं थी  आज फिर किसी से मुझे,
मुझको छोड़कर वो किसी को भी अगर नहीं देखता।

मज़हब लोग  तो बांट लेते हैं  ज़मीं  शजर  क्या  कहूँ,
किसको  छाँव  देनी  नहीं  देनी  शजर  नहीं  देखता।

दुश्मन भी रहम यूँ दिखाता है कभी – कभी बा-अदब,
अपना तो दुखाने में  दिल  कोई  कसर  नहीं  देखता।

‘श्रेयस’ दर्द से जी लगा इतना कि मैं कभी कुछ लिखूं
तो ग़ज़लों में सब देखता  हूँ  पर  बहर  नहीं  देखता।

                    ©️संदीप कुमार तिवारी’श्रेयस’

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