अकेले चलता जाऊँ मैं।

 

दूर क्षीतिज के पार कही अनंत में है वो खड़ा
यूँ लगता है कि बुला रहा है वो मुझे,वो जो अपना है मेरा सच्चा प्रीतम।
है फैसला ये कर लिया कि अब ना तुझे याद करे
दिल भी नामुराद रजामंद है फ़िराक़ से।
तुम न आओ तो न आओ ये भी अच्छा है
जब भी आते हो कोई नया गम इज़ाद लिए।
संग मेरे चलती थी पहले राहें और आब-ओ-हवा
फ़िर से वही दिन हैं लौटें किस लिए घबराऊँ मैं।
मैं पथिक अनंत पथ का चल पड़ा अब राह में और ये फैसला है अकेले चलता जाऊँ मैं।
राह में कुछ दूर तो तू साथ चला है मेरे
ये भी क्या कम है कोई साथ चला है मेरे
मेरे मरने का कोई रंज नहीं है हमसफ़र
बस ये अफ़सोस की तू पास हो के साथ नहीं।
जी लू तन्हा ये उम्र जुदाई का मैं
मर भी जाऊं तो मर जाऊं अब कोई बात नहीं।

©️संदीप कुमार तिवारी

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